यह जनता ही है, जो गणतंत्र को मजबूत और जीवंत बनाये रख सकती है

न्यूज़ डेस्क –  एक गणतंत्र को देशवासियों द्वारा सुदृढ़ और जीवंत बनाया जाता है। अपने वर्तमान स्वरूप में, भारतीय गणतंत्र ने गतिशील संतुलन बनाए रखते हुए 73 वर्ष पूरे कर लिए हैं। भारत की बहुलता और विविधता को दर्शाने वाली ताकतों की खींच-तान से यह अक्सर दबाव का अनुभव करता है। इसका श्रेय देशवासियों को दिया जाना चाहिए कि आज हमारे पास पिरामिड की आकृति के समान तीन स्तरों पर निर्वाचित होने वाली प्रतिनिधि प्रणाली है, जो हम पर शासन करती है। अपनी त्रुटियों के बावजूद, इस प्रणाली में आज 3 मिलियन से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि (इनमें से एक मिलियन महिलाएं) हैं, राज्य विधानसभाओं में 4,000 से अधिक निर्वाचित सदस्य हैं और संसद के लिए 500 से अधिक प्रतिनिधि चुने गए हैं। प्रस्तावना में गणतंत्र की परिकल्पना लोगों द्वारा स्वतंत्र रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयं के शासित होने की थी। प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधित्व का यह पैमाना, शायद, दुनिया में और कहीं नहीं देखा जा सकता है। इस पर तर्क-वितर्क करने, शोर-गुल करने और कभी-कभी किसी बात को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देने का आरोप लगाया जा सकता है, लेकिन इसमें जीवन की उमंग निरंतर विद्यमान है।
1950 से पहले, 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता था, जिसे 1929 में लाहौर कांग्रेस में अपनाए गए पूर्ण स्वतंत्रता (पूर्ण स्वराज) के प्रस्ताव के बाद से शुरू किया गया था। एक बार जब साम्राज्यवादी शासक से आज़ादी मिली और संविधान को अपनाया गया, तो इस दिन को हमारे गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया गया।


‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता की तीर्थयात्रा) में के एम मुंशी लिखते हैं, “संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, न ही यह राजनीतिक दस्तावेज है। यह सच है कि इसे वकीलों द्वारा उन राजनीतिक नेताओं की मदद से तैयार किया गया था, जिन्हें स्वतंत्रता की लड़ाई में जीत हासिल हुई थी। उनकी ऐतिहासिक भूमिका थी: एक ऐसा ढांचा तैयार करने की, जिसके अंतर्गत हमारी राष्ट्रीय एकता और जीवन का लोकतांत्रिक तरीका फल-फूल सके। अनिवार्य रूप से, हमारे संविधान की एक नैतिक पृष्ठभूमि है- समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए न्याय सुनिश्चित करना; एक आध्यात्मिक आधार भी है- सभी धर्मों को उनके कार्य-कलापों के साथ सुरक्षित और संरक्षित रखना … मेरी पीढ़ी के नेताओं ने संविधान में स्वतंत्रता, कानून के शासन, अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता एवं सबसे बढ़कर अखंडता तथा स्थिरता की विरासत छोड़ी है, जिसकी खुशी का आनंद देश ने पिछले 500 वर्षों में कभी अनुभव नहीं किया था।”


निःसंदेह पिछले सात दशकों के दौरान हमारे संविधान ने अखंडता और स्थिरता दी है, जो हमारे गणतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। समाज के प्रत्येक समुदाय के लिए न्याय हासिल करने संबंधी चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं। पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सभी समुदायों के गरीब लोग बेहतर अवसर और किफायती न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारे गणतंत्र की इन सात दशकों की यात्रा के दौरान, भारत के एक क्षेत्र में एससी, एसटी और महिलाएं संवैधानिक अधिकारों से वंचित थीं, जिसका समाधान अनुच्छेद 370 को निरस्त करके किया गया है।


सभी धर्मों को सुरक्षित और संरक्षित रखने को मुंशी हमारे संविधान का आध्यात्मिक आधार मानते हैं, लेकिन इसे भी कई दबाव सहन करने पड़े हैं। वोट की राजनीति के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता (आपातकाल के दौरान, बाद में लागू) के सिद्धांत का पालन करने में विकृति ने अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को उनके वैध अधिकारों से वंचित कर दिया था। तीन तलाक को निरस्त करने वाले अधिनियम के विरोध ने दिखाया कि कैसे भारत में मुस्लिम महिलाओं को मुख्यतः चुनावी कारणों से कई इस्लामी देशों में महिलाओं को मिले अधिकारों से वंचित रखा गया था। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण फिर से सामने आता है, जब एक समुदाय के धार्मिक अधिकारों को बरकरार रखा जाता है, जबकि दूसरे समुदाय को समान अधिकारों से वंचित रखा जाता है। धार्मिक अधिकारों का मुद्दा, इसकी गंभीरता की दृष्टि से, एक राज्य की तुलना में दूसरे राज्य में अलग हो सकता है, लेकिन जब सामान्य तौर पर संदिग्ध माने जाने वाले इसे राष्ट्रव्यापी विद्रोह के रूप में चित्रित करते हैं, तो उन्हें उद्देश्यपूर्ण या निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता है। जब किसी को धर्म का पालन करने के अधिकार से वंचित किया जाता है या धमकी दी जाती है, तो प्रबुद्धजनों या मीडिया की चुप्पी संवैधानिक रूप से अंतर्निहित सुरक्षा को कमजोर करती है। गणतंत्र की ताकत, पाखंडी मूल्यों और निगरानी रखने वाले संगठनों की सोची-समझी चुप्पी से कमजोर होती है।


इसमें कोई संदेह नहीं है कि संचार प्रौद्योगिकियां आधुनिक गणराज्यों को मजबूत करती हैं। प्रौद्योगिकी ने लोगों के बीच सूचना साझा करने और जागरूकता फैलाने की लागत को कम कर दिया है। यह एक शक्तिशाली उपकरण है, जो अब अच्छी तरह से लोकतांत्रिक प्रकृति का हो गया है। इस लोकतंत्रीकरण का या इसके सर्वसुलभ होने का एक अप्रत्याशित परिणाम है- असत्यापित समाचार या झूठी खबरों का बनना और इनका साझा होना। प्रौद्योगिकी की शक्ति और बड़े पैमाने पर प्रसारित करने की इसकी क्षमता के जरिए, सोशल मीडिया, जो एक उपयोगी माध्यम है, हमारे संविधान में निहित एक या विभिन्न अधिकारों के लिए चुनौती और यहाँ तक की खतरा बन गया है। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए उनमें कटौती करना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कुचलने के रूप में देखा जाता है। बिना किसी कार्रवाई के, इस तरह के बड़े पैमाने पर झूठी खबरों से सामाजिक सद्भाव को होने वाले नुकसान के परिणामस्वरूप लोगों का संविधान में ही विश्वास कम हो सकता है।


सुभाष सी कश्यप कहते हैं, “हमारा संविधान एक जीवंत व गतिशील प्रक्रिया है, जो लगातार विकसित हो रही है और संशोधनों, न्यायिक विवेचनों तथा वास्तविक कामकाज के तौर-तरीकों से इसका निरंतर निर्माण हो रहा है।” दुनिया के सभी संविधानों की तुलना में हमारे संविधान में सबसे अधिक संशोधन हुए हैं। यह सही है कि क्रमिक सरकारों ने यह सुनिश्चित किया है कि संविधान तत्कालीन समय और लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप हो। यदि संविधान में 100 से अधिक संशोधन किए गए हैं, तो 1,500 से अधिक कानून ऐसे हैं, जिन्हें निरस्त कर दिया गया है, क्योंकि समय के साथ इन कानूनों ने अपना महत्व खो दिया था। ये अनुपयोगी कानून, कागज में बने रहकर, प्रशासन के लिए कभी-कभी हथियार बन जाते थे। प्रशासनिक सुधार के एक भाग के रूप में उन्हें निरस्त करने से कार्यपालिका की भूमिका पारदर्शी और जवाबदेह हुई है। यह आवश्यक है कि संविधान में प्रत्येक बदलाव इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जाए कि संविधान निर्माताओं के मूल उद्देश्य पर कोई आंच ना आये।
हमारा संविधान निरंतर विकसित हो रहा है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण 101वां संशोधन है, जिसके जरिये वस्तु और सेवा कर को लागू किया गया था। इस संशोधन के द्वारा केंद्र और राज्यों के अधिकांश अप्रत्यक्ष करों को समाहित करके एक एकीकृत अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को लागू किया गया। जीएसटी परिषद का गठन किया गया। परिषद के पास जीएसटी से संबंधित मुद्दों और इसके तहत आने वाली प्रत्येक वस्तु पर लागू दरों के सन्दर्भ में निर्णय लेने की शक्ति है। अभी पांच साल पूरे होने शेष हैं, लेकिन जीएसटी परिषद अपने शुरुआती वर्षों में भी चुनौतीपूर्ण समय की कसौटी पर खरी उतरी है। यह सहकारी संघवाद के लिए शुभ संकेत है।


इन सात दशकों में हमारे संविधान ने हमारी अच्छी सेवा की है। साम्राज्यवाद के युग के बाद कई गणराज्यों ने अपने पहले संविधानों को खारिज कर दिया और नए संविधानों को लागू किया। बाबासाहेब अम्बेडकर ने महसूस किया था, “संविधान की कार्यप्रणाली पूरी तरह से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती है। संविधान केवल राज्य के अंग जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका प्रदान कर सकता है। जिन कारकों पर राज्य के उन अंगों का कामकाज निर्भर करता है, वे हैं – लोग और राजनीतिक दल, जिन्हें जनता अपनी आकांक्षाओं और दल की राजनीति को पूरा करने के लिए अपने उपकरण के रूप में स्थापित करेगी।” इसलिए, यह जनता ही है, जो गणतंत्र को मजबूत और जीवंत बनाये रख सकती है।

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